भारतीय कृषि में पूँजीवादी विकास
सुखविन्दर
1990 के बाद का दौर पूरे विश्व में और भारत में भी तीव्र परिवर्तनों का समय रहा है। इन तीव्र परिवर्तनों से भारतीय समाज का कोई भी कोना अछूता नहीं रहा है। कहा जा सकता है कि यह समय भारतीय समाज के तीव्र गति से पूँजीवादी विकास का रहा है। पूँजीवादी विकास की ऐसी गति, जो भारतीय समाज ने पिछले चार दशकों में कभी नहीं देखी थी।
इन तीव्र परिवर्तनों के समय में, जो संगठन अभी भी भारत को अर्द्धसामन्ती अर्द्धऔपनिवेशिक समाज के रूप उनके भी पुराने पड़ चुके साँचे-खाँचे हिलने लगे। भारतीय समाज के चरित्रा के सवाल पर इन संगठनों पर बाहर से जो प्रश्न उठते थे, उन पर ये मौन धारण किये रहे। परन्तु अब इन संगठनों के अन्दर से ही भारतीय समाज के चरित्र के बारे में इनकी समझ पर सवाल उठने लगे। इन संगठनों के नेतृत्व को मज़बूरन इन सवालों पर मुँह खोलना ही पड़ा। परन्तु अभी भी ये संगठन अपने घिसे-पिटे पुराने फ्रेमवर्क का खूँटा गाड़े बैठे हैं। ये भारतीय समाज में हुए चैतरफा परिवर्तनों से उठने वाले सवालों पर यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि इन प्रश्नों को अभी जाँचा-परखा जाना है (यह बात ये संगठन पिछले दो दशकों से भी अधिक समय से कहते चले आ रहे हैं,) या फिर नये तथ्यों को काट-छाँटकर इन नये परिवर्तनों को अपने कार्यक्रम सम्बन्धी पुराने फ्रेमवर्क में फिट करने की कोशिश करते हैं।
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