Thursday, January 24, 2008

कुछ यूं हुई थी जनचेतना की शुरुआत...

उन्नीस वर्ष पहले कुछ लोगों ने जनस्वप्नों को लंबी उम्र और कल्पनाओं को पंख प्रदान करने वाली किताबों को जन-जन तक पहुंचाने की जरूरत महसूस की। झोलों में किताबें लेकर घरों-दफ्तरों-कालेजों में जाने से शुरुआत हुई और फिर कारवॉं आगे बढ़ता गया। जनता से सहयोग लेकर जनता तक साहित्य पहुंचाने के इस उद्यम में आज उत्तर भारत के अनेक नगरों जनचेतना के कार्यकर्ता साइकिलों पर, ठेलों पर, थैलों में किताबें लेकर जाते हैं, छोटी-बड़ी प्रदर्शनियां लगाते हैं, छोटे शहरों और कस्बों तक साहित्य पहुंचाते हैं। पूरी तरह आम लोगों और शुभचिन्तकों के सहयोग से अब एक सचल प्रदर्शनी वाहन के ज़रिए जनचेतना उत्तर भारत के सुदूर इलाक़ों तक भी पहुंच रही है। हम घर-घर तक सपने और विचार पहुंचा रहे हैं; जीवन, सृजन और प्रगति का नारा पहुंचा रहे हैं।
हिन्दी क्षेत्र में यह अपने ढंग का एक अनूठा प्रयास है। एक भी वैतनिक स्टाफ के बिना, समर्पित वालण्टियरों और विभिन्न सहयोगी जनसंगठनों के कार्यकर्त्ताओं के बूते पर यह प्रोजे‍क्ट आगे बढ़ रहा है। परिकल्पना प्रकाशन, राहुल फाउण्डेशन के प्रकाशन प्रभाग, अनुराग ट्रस्ट, शहीद भगतसिंह यादगारी प्रकाशन, दस्तक प्रकाशन और प्रांजल आर्ट पब्लिशर्स की पुस्तकों की 'जनचेतना' मुख्य वितरक है। ये प्रकाशन पांच स्रोतों - सरकार, राजनीतिक पार्टियों, कारपोरेट घरानों, बहुराष्ट्रीय निगमों और विदेशी फण्डिंग एजेंसियों से किसी भी प्रकार का अनुदान या वित्‍तीय सहायता लिये बिना जनता से जुटाये गये संसाधनों के आधार पर आज के दौर के लिए ज़रूरी व महत्वपूर्ण साहित्य बेहद सस्ती दरों पर उपलब्ध कराने के लिए प्रतिबद्ध है।

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