Friday, September 19, 2008

मुक्तिकामी नौजवानों की शौर्यगाथा - तरुणाई का तराना

साहित्‍यकार, कलाकार, बुद्धिजीवी कई तरह के होते हैं, कुछ कला के लिए कला की, कविता के लिए कविता आदि की रचना करते हैं और कुछ मानवता को आगे ले जाने, उसे सही रास्‍ता दिखाने, और संवेदनाओं को जगाने-विसंगतियों पर प्रहार करने वाली रचनाओं का निर्माण करते हैं....ऐसी ही एक रचना है चीन की क्रान्तिकारी लेखिका याङ मो का उपन्‍यास तरुणाई का तराना...
'तरुणाई का तराना' अर्द्ध-सामन्‍ती अर्द्ध-औपनिवेशिक चीन समाज की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे नौजवान छात्र-छात्राओं की शौर्यगाथा का अत्‍यन्‍त सजीव, प्रेरणादायी और रोचक वर्णन करता है। इस सदी का चौथा दशक चीन के लिए एक भयानक अन्‍धकार-काल था। एक तरफ, जापानी आक्रमणकारी चीन के उत्तर-पूर्वी प्रान्‍तों पर क़ब्‍ज़ा करके तेज़ी से भीतर की ओर घुसते चले आ रहे थे, और दूसरी तरफ़ सत्‍तारूढ़ कुओमिन्‍ताङ ने विभिन्‍न अपमानजनक समझौतों पर हस्‍ताक्षर करके चीन के कई प्रान्‍तों पर जापान की सम्‍प्रभुता स्‍वीकार कर ली थी तथा जापानी साम्राज्‍यवाद का प्रतिरोध कर रही लाल सेना और कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के नेत़ृत्‍व में संघर्ष कर रहे क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं और देशभक्‍त नौजवानों का दमन और क़त्‍लेआम शुरू कर दिया था। 1935 की सर्दियों में जब जापानी साम्राज्‍यवादियों ने चीन के होपेई और चहार प्रान्‍तों में अपनी कठपुतली सरकारें गठित कर दीं और इस तरह पूरे उत्‍तरी चीन को खतरा उत्‍पन्‍न हो गया, तो पेइपिंग के छात्र-छात्राओं ने प्रतिरोध के लिए देश की जनता का आह्वान किया। ''चीन के लोगो, देश की रक्षा के लिए उठ खडे हो!'' इस नारे के साथ शुरू हुआ 9 सितम्‍बर 19353 का आन्‍दोलन, चीनी जनता द्वारा जापानी आक्रमण व कुओमिन्‍ताङ सरकार की अप्रतिरोध की नीति के विरोध का आरम्‍भ था।
यही घटनाएं 'तरुणाई का तराना' की पृष्‍ठभूमि है, जब असंख्‍य बहादुर युवक-युवतियां मशीनगनों, संगीनों, क्रूर यातनाओं, लम्‍बे कारावासों और यहां तक कि प्राणदण्‍ड की परवाह किये बिना दुश्‍मन के खि़लाफ़ विकट संघर्ष में कूद पड़े थे। उपन्‍यास सिर्फ़ संघर्षों का विवरण ही नहीं है, बल्कि क्रान्तिकारी संघर्ष की राजनीति, क्रान्ति की दिशा, सही रणनीति और रणकौशल की सैद्धान्तिक विवेचना और उनके व्‍यावहारिक प्रयोग का एक अमूल्‍य दस्‍तावेज़ भी है।

Wednesday, September 10, 2008

'तीन टके का उपन्‍यास'

'तीन टके का उपन्‍यास' में ब्रेष्‍ट पतनशील पूंजीवादी समाज में व्‍यापरिक पूंजीपति वर्ग की घोर अनैतिकता, लालच और उसके ''राष्‍ट्रवाद'' की असलियत को एकदम उजागर कर देते हैं। ब्रेष्‍ट बहुत ही दिलचस्‍प और यथार्थवादी तरीके से पूंजीवादी राष्‍ट्रवाद, पूंजीवादी नैतिकता, पूंजीवादी प्रेम, पूंजीवादी रिश्‍तों, पूंजीवादी संवेदनाओं, पूंजीवादी न्‍याय और पूंजीवादी मीडिया की वास्‍तविकता को सामने लाते हैं। साथ ही ब्रेष्‍ट अपराध जगत और उद्योग और व्‍यापार जगत के बीच के गुप्‍त सम्‍बन्‍धों को भी बेपर्दा कर देते हैं। वास्‍तव में, ब्रेष्‍ट दिखलाते हैं कि दरअसल व्‍यापार वह अपराध है जो बिना किसी सज़ा के चलता रहता है। ब्रेष्‍ट अधिक तीखे़पन के साथ बाल्‍ज़ाक के उस कथन को सत्‍यापित करते दिखते हैं कि हर सम्‍पत्ति साम्राज्‍य की बुनियाद अपराध होता है।
इस उपन्‍यास को पढ़ते समय कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि यह आज के भारत के लिए लिखा गया है।
...छोटे व्‍यापारिक वर्गों में फासीवादी उभार का सम्‍भावित समर्थक बनने का गुण ब्रेष्‍ट के इस उपन्‍यास में साफ़ तौर पर सामने आता है। यह कहा जा सकता है कि यह उपन्‍यास ब्रेष्‍ट की सर्वश्रेष्‍ट रचनाओं में से एक है। निस्‍सन्‍देह रूप से, ब्रेष्‍ट यहॉं तीखे व्‍यंग्‍य के साथ अपने सर्वश्रेष्‍ठ रूप में हैं!
इसे हिन्‍दी में परिकल्‍पना प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।

Sunday, January 27, 2008

साहित्य का उद्देश्य

... जब तक साहित्य का काम केवल मनबहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियां गा-गाकर सुलाना, केवल आंसू बहाकर जी हल्का करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी। वह एक दीवाना था, जिसका ग़म दूसरे खाते थे, मगर हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति और बेचैनी प्रदान करे, सुलाये नहीं; क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।

-प्रेमचंद

धारा के विरुद्ध तैरना ही होगा...

पूंजीवादी अखबारों, पत्रिकाओं, रेडियो-दूरदर्शन और दर्जनों केबल टीवी चैनलों आदि ने आज पूरे देश के आम लोगों के दिलो-दिमाग पर चौतरफा हमला बोल दिया है। अखबार, छापेखाने, प्रकाशन उद्योग, इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया - इन सब पर हमारे देश के बड़े और मझोले पूंजीपतियों तथा उन्‍हीं की चाकरी बजाने वाली सरकार का शिकंजा तो पहले से कायम था, अब साम्राज्‍यवादी देशों के बड़े-बड़े 'मीडिया दैत्‍यों' ने भी मीडिया तंत्र के अच्‍छे-खासे हिस्‍से पर कब्‍जा जमा लिया है।
एक व्‍यापक सामाजिक परिवर्तन के लिए जन-जन तक नये विचारों और नयी संस्‍कृति को ले जाना आज जितना ही जरूरी है, उतना ही कठिन भी हो गया है। बिना कोई समझौता किये हुए सीमित संसाधनों से निकलने वाली जनपक्षधर पत्र-पत्रिकाओं को अस्तित्‍व के लिए कदम-कदम पर जूझना पड़ रहा है। बड़ी पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्तक सरकार द्वारा विज्ञापन व कागज-कोटा आदि की जो सुविधाएं छोटी पत्र-पत्रिकाओं के नाम पर दी जाती हैं वे ज्‍यादातर ऐसे ही पत्रों को मिलती हैं जो पीत-पत्रकारिता और ब्लैकमे‍लिंग आदि के धंधों में लगे हैं। उसूलों में कोई समझौता किये बगैर जनपक्ष की सच्‍चाइयों को सामने लाने वाले पत्रों से जुड़े पत्रकारों को अभिव्‍यक्ति की आज़ादी का गला फाड़-फाड़कर दुहाई देने वाली यह सरकार तरह-तरह से ''कानूनी'' और गैरकानूनी, दोनों तरीकों से प्रताडि़त करती है और ऐसे पत्रों को बंद कर देने का हर संभव कुचक्र रचती रहती है। सूचना-जगत पर अपनी समाचार एजेंसियों व टीवी चैनलों के जरिए इजारेदारी कायम किये हुए साम्राज्‍यवादी देश भी आज हमारे मस्तिष्‍क को नियंत्रित-निर्देशित करने की हरचंद कोशिशें कर हरे हैं। उन्‍होंने सूचना पर एकाधिकार और सांस्‍कृतिक दुष्‍प्रचार का एक नया दिग्विजय अभियान भी शुरू कर दिया है। नई विश्‍वव्‍यवस्‍था में पूरी दुनिया को ढालने का अभियान पश्चिमी प्रचार तंत्र ने संगठित ढंग से शुरू कर दिया है और हमारे देश के सत्‍ताधारी भी, कुछ आपसी अन्‍तरविरोधों के बावजूद, कुल मिलाकर इस मुहिम में उनके सहयोगी बने हुए हैं। आज हम वही पढ़ते-देखते और सुनते हैं जो साम्राज्‍यवादी-पूंजीवादी लुटेरे और उनकी व्‍यवस्‍था चाहती है। व्‍यापक जनता गैरजानकारी, अधूरी जानकारी और गलत जानकारी की अंधेरी कालकोठरी में कैद कर दी गई है। ऊपर से साम्राज्‍यवाद-पूंजीवाद की निमर्म-निरंकुश लोभ-लाभवादी, उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति के ड्रग्स के विषैली खुराकें देकर पूरे समाज के दिलो-दिमाग को कुंद किया जा रहा है। टी.वी. कार्यक्रमों, कॉमिक्‍स और फिल्‍मों के जरिए आज हमारे समाज के बच्‍चे तक सांस्‍कृतिक प्रदूषण के इस संक्रामक ''मस्तिष्‍क ज्‍वर'' की चपेट में आ चुके हैं। ऐसी स्थिति में आज सभी क्रांतिकारी शक्तियों और जागरूक, प्रगतिशील, जनपक्षधर बुद्धिजीवियों का एक बुनियादी कर्तव्‍य एवं दायित्‍व बनता है कि वे देश की आम जनता को इस पूरी स्थिति की सही-सच्‍ची जानकारी दें और उसे सहयोग लकर जनपक्षधर पत्र-पत्रिकाओं-पुस्‍तकों के प्रकाशन एंव प्रसार का, तथा नाटक व संगीत से लेकर वीडियो फिल्‍मों तक -विविध कला माध्‍यों के प्रयोग का एक व्‍यापक ताना-बाना खड़ा करें। इनके माध्‍यम से से आज विचार एवं संस्‍कृति के मोर्चे पर एक सर्वथा नये, क्रान्तिकारी नवजागरण एवं क्रान्तिकारी प्रबोधन की अलख जगाने की जरूरत है। सत्‍ता पक्ष इस व्‍यवस्‍था की हिफाजत में अपने सूचनातंत्र का आज सूक्ष्‍मतम, व्‍यापकतम और कुशलतम इस्‍तेमाल कर रहा है अब जनपक्ष को भी व्‍यवस्‍था परिवर्तन की लड़ाई में सूचना को हथियार बनाना होगा।
इन्‍हीं उद्देश्‍यों को सामने रखकर राहुल फाउण्‍डेशन प्रकाशन प्रभाग तथा इसके सहयोगी प्रकाशन 'परिकल्‍पना' द्वारा अनेक महत्‍वपूर्ण साहित्यिक व राजनीतिक पुस्‍तकों का प्रकाशन जारी है। हर प्रकार के जनपक्षधर, प्रगतिशील व क्रान्तिकारी साहित्‍य के मुद्रण में सहयोग के लिए राहुल फाउण्‍डेशन का कम्‍प्‍यूटर प्रभाग कई वर्षों से काम कर रहा है। ऐसे साहित्‍य तथा कविता पोस्‍टरों, स्टिकर्स, कैसेटों आदि प्रचार सामग्री के वितरण के लिए इसकी सहयोगी संस्‍था 'जनचेतना' के तहत विगत 21 वर्षों से गोरखपुर व लखनऊ में नियमित विक्रय केंद्र चलाये जाने के अतिरिक्‍त अनेक शहरों-कस्‍बों में साहित्‍य प्रदर्शनियां आयोजित करने एवं घर-घर साहित्‍य पहुंचाने की योजनाएं चलाई जा रही हैं। यह एक लम्‍बी यात्रा की छोटी-सी शुरुआत है। पर पूरे देश में एक नये सांस्‍कृतिक आन्‍दोलन और जनता के क्रांतिकारी मीडिया की निर्माण-प्रक्रिया यहीं से शुरू होगी। हमें मात्र आपकी सहानुभूति ही नहीं, बल्कि सार्थक सहयोग और सक्रिय सहभागिता की जरूरत है।

Thursday, January 24, 2008

कुछ यूं हुई थी जनचेतना की शुरुआत...

उन्नीस वर्ष पहले कुछ लोगों ने जनस्वप्नों को लंबी उम्र और कल्पनाओं को पंख प्रदान करने वाली किताबों को जन-जन तक पहुंचाने की जरूरत महसूस की। झोलों में किताबें लेकर घरों-दफ्तरों-कालेजों में जाने से शुरुआत हुई और फिर कारवॉं आगे बढ़ता गया। जनता से सहयोग लेकर जनता तक साहित्य पहुंचाने के इस उद्यम में आज उत्तर भारत के अनेक नगरों जनचेतना के कार्यकर्ता साइकिलों पर, ठेलों पर, थैलों में किताबें लेकर जाते हैं, छोटी-बड़ी प्रदर्शनियां लगाते हैं, छोटे शहरों और कस्बों तक साहित्य पहुंचाते हैं। पूरी तरह आम लोगों और शुभचिन्तकों के सहयोग से अब एक सचल प्रदर्शनी वाहन के ज़रिए जनचेतना उत्तर भारत के सुदूर इलाक़ों तक भी पहुंच रही है। हम घर-घर तक सपने और विचार पहुंचा रहे हैं; जीवन, सृजन और प्रगति का नारा पहुंचा रहे हैं।
हिन्दी क्षेत्र में यह अपने ढंग का एक अनूठा प्रयास है। एक भी वैतनिक स्टाफ के बिना, समर्पित वालण्टियरों और विभिन्न सहयोगी जनसंगठनों के कार्यकर्त्ताओं के बूते पर यह प्रोजे‍क्ट आगे बढ़ रहा है। परिकल्पना प्रकाशन, राहुल फाउण्डेशन के प्रकाशन प्रभाग, अनुराग ट्रस्ट, शहीद भगतसिंह यादगारी प्रकाशन, दस्तक प्रकाशन और प्रांजल आर्ट पब्लिशर्स की पुस्तकों की 'जनचेतना' मुख्य वितरक है। ये प्रकाशन पांच स्रोतों - सरकार, राजनीतिक पार्टियों, कारपोरेट घरानों, बहुराष्ट्रीय निगमों और विदेशी फण्डिंग एजेंसियों से किसी भी प्रकार का अनुदान या वित्‍तीय सहायता लिये बिना जनता से जुटाये गये संसाधनों के आधार पर आज के दौर के लिए ज़रूरी व महत्वपूर्ण साहित्य बेहद सस्ती दरों पर उपलब्ध कराने के लिए प्रतिबद्ध है।

हाल ही में

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